रांची, राज्य ब्यूरो। लोकसभ्ाा चुनाव नजदीक आते ही
झारखंड में राजनीतिक पारा चढ़ने लगा है। सियासी दल से लेकर विपक्ष तक में
गोटियां सेट की जा रही है। नेता से लेकर अफसर तक अपनी मुस्कान चौड़ी करने
में लगे हैं। बीते दिन विधानसभा के शीतकालीन सत्र में विधायकों के हंगामे
के बाद भी जहां पारा शिक्षकों के मसले पर कोई रिजल्ट नहीं निकल सका, वहीं
मुख्यमंत्री रघुवर दास के बीडीओ-सीओ पर दिए गए ताजा बयान से सरगर्मी बढ़ी
हुई है। आइए जानें सत्ता के गलियारे में आखिर चल क्या रहा है...
हो गई फजीहत : अपने साथ न दें तो फजीहत हो ही जाती है। राधे के कृष्ण के साथ भी कुछ ऐसा ही हो गया। राज्य की सर्वोच्च पंचायत में एक खास मसले पर वे प्रतिपक्ष के सुर में सुर मिलाते दिखे। मसला एक अहम विधेयक से जुड़ा था। बड़ा सा वक्तव्य दिया, दोनों पक्षों की ओर विजयी मुस्कान से मुस्काए भी। आसन को कर्तव्यों का एहसास कराया, जीत भी मानकर तय चल रहे थे। लेकिन सीन बदल गया। वोटिंग की नौबत आ गई। मरता क्या न करता। उधर जाते तो निपट जाते। बेचारे अपनों की ओर ओर असहाय दृष्टि से देखते हुए उन्हीं के साथ खड़े हो गए। उधर से हंसी का एक गुबार उड़ा, फिर न उठी उनकी नजरें।
बड़े पहिए की बड़ी बात : लालटेन के रखवाले के बड़े-बड़े दीवाने हैं। तभी तो हर शनिवार रिम्स परिसर में उनके समर्थकों का मेला लग रहा है। सब की एक ही चाहत, बस लालू की एक झलक मिल जाए, पर साहब तो ठहरे कैदी, बिना पास के कोई फटक नहीं सकता। तेजस्वी, उपेंद्र और सन ऑफ मल्लाह के सामने छुटभैये बस दौड़ते-भागते ही दिखे। दरवाजे पर खड़े संतरी से मिन्नतें की, पर एक न चली। अपने आका से नहीं मिल पाने के गम में छुटभैयों ने बस इतना ही कहा, जब बात बड़े पहिए की हो, छोटे की फिक्र कौन करे। हम तो ठहरे साहब के दीवाने, यूं हीं आएंगे और चले जाएंगे। बड़े पहिए निकल जाते हैं, छुटभैये अभी भी जमे हैं।
नापी से उठा दर्द : राह दिखाने वाले विभाग ने जब से नाली-गली का नाप लेना शुरू किया है, तब से शहर की सरकार के नुमाइंदों के पेट में दर्द उठने लगा है। उठे भी काहे नहीं भई, पापी पेट का सवाल था। कह रहे कि भई छोटा पेट है इसे क्यों नाप रहे हो, इतना जोर-जबरदस्ती करके शहर की सरकार में अपनी सीट पक्की कराई थी। सोचा था नाली-गली के काम में अपना कुछ काम बनाएंगे, लेकिन लगता है सिर्फ हाथ ही मलते रह जाएंगे। इधर, राह दिखाने वाले विभाग के अधिकारी इन दिनों परेशान हैं, काहे कि अब उनको गली-नाली का काम करना होगा। भई अब तक जो बड़ी-बड़ी सड़क का ठेका देकर काम करने के लिए जाने जाते थे, अगर वो गली-नाली का निर्माण करेंगे तो परेशानी तो होगी ही। अब देखना है कि शहर की सरकार के नुमाइंदे इस दर्द की दवा ढूंढ पाएंगे या फिर सिर्फ देखते ही रह जाएंगे।
बातें हैं बातों का क्या : डंडा-टोपी वाले बाबा के वादे फिर दगा दे गए। बाबा हर बार एक वादा करते हैं, लेकिन वह वादा सिर्फ वादा ही रह जाता है। जब वादा पूरा नहीं हो पाता तो बाबा एक गीत गुनगुनाते हुए पुराने साल को टाटा-बाय-बाय करते-करते नए साल में प्रवेश कर जाते हैं। एक बार फिर नया साल आने वाला है और बाबा एक ही गीत गुनगुनाने लगे हैं, 'कसमे वादे प्यार वफा सब, बातें हैं बातों का क्या...। डंडा टोपी वाले ये बाबा बड़े कलाकार भी हैं। सामने वाले को आंकड़े में ऐसे उलझा देते हैं कि वह सोचकर भी बाबा का कुछ नहीं बिगाड़ पाता। धरातल पर हकीकत कुछ और ही है। जंगल वालों को जब भी ठंड लगती है, वे बाबा के संरक्षण में चल रहीं बड़ी-बड़ी गाडिय़ां अग्निदेवता को दान कर देते हैं। बाबा की डिंग हांकने से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता।
हो गई फजीहत : अपने साथ न दें तो फजीहत हो ही जाती है। राधे के कृष्ण के साथ भी कुछ ऐसा ही हो गया। राज्य की सर्वोच्च पंचायत में एक खास मसले पर वे प्रतिपक्ष के सुर में सुर मिलाते दिखे। मसला एक अहम विधेयक से जुड़ा था। बड़ा सा वक्तव्य दिया, दोनों पक्षों की ओर विजयी मुस्कान से मुस्काए भी। आसन को कर्तव्यों का एहसास कराया, जीत भी मानकर तय चल रहे थे। लेकिन सीन बदल गया। वोटिंग की नौबत आ गई। मरता क्या न करता। उधर जाते तो निपट जाते। बेचारे अपनों की ओर ओर असहाय दृष्टि से देखते हुए उन्हीं के साथ खड़े हो गए। उधर से हंसी का एक गुबार उड़ा, फिर न उठी उनकी नजरें।
बड़े पहिए की बड़ी बात : लालटेन के रखवाले के बड़े-बड़े दीवाने हैं। तभी तो हर शनिवार रिम्स परिसर में उनके समर्थकों का मेला लग रहा है। सब की एक ही चाहत, बस लालू की एक झलक मिल जाए, पर साहब तो ठहरे कैदी, बिना पास के कोई फटक नहीं सकता। तेजस्वी, उपेंद्र और सन ऑफ मल्लाह के सामने छुटभैये बस दौड़ते-भागते ही दिखे। दरवाजे पर खड़े संतरी से मिन्नतें की, पर एक न चली। अपने आका से नहीं मिल पाने के गम में छुटभैयों ने बस इतना ही कहा, जब बात बड़े पहिए की हो, छोटे की फिक्र कौन करे। हम तो ठहरे साहब के दीवाने, यूं हीं आएंगे और चले जाएंगे। बड़े पहिए निकल जाते हैं, छुटभैये अभी भी जमे हैं।
नापी से उठा दर्द : राह दिखाने वाले विभाग ने जब से नाली-गली का नाप लेना शुरू किया है, तब से शहर की सरकार के नुमाइंदों के पेट में दर्द उठने लगा है। उठे भी काहे नहीं भई, पापी पेट का सवाल था। कह रहे कि भई छोटा पेट है इसे क्यों नाप रहे हो, इतना जोर-जबरदस्ती करके शहर की सरकार में अपनी सीट पक्की कराई थी। सोचा था नाली-गली के काम में अपना कुछ काम बनाएंगे, लेकिन लगता है सिर्फ हाथ ही मलते रह जाएंगे। इधर, राह दिखाने वाले विभाग के अधिकारी इन दिनों परेशान हैं, काहे कि अब उनको गली-नाली का काम करना होगा। भई अब तक जो बड़ी-बड़ी सड़क का ठेका देकर काम करने के लिए जाने जाते थे, अगर वो गली-नाली का निर्माण करेंगे तो परेशानी तो होगी ही। अब देखना है कि शहर की सरकार के नुमाइंदे इस दर्द की दवा ढूंढ पाएंगे या फिर सिर्फ देखते ही रह जाएंगे।
बातें हैं बातों का क्या : डंडा-टोपी वाले बाबा के वादे फिर दगा दे गए। बाबा हर बार एक वादा करते हैं, लेकिन वह वादा सिर्फ वादा ही रह जाता है। जब वादा पूरा नहीं हो पाता तो बाबा एक गीत गुनगुनाते हुए पुराने साल को टाटा-बाय-बाय करते-करते नए साल में प्रवेश कर जाते हैं। एक बार फिर नया साल आने वाला है और बाबा एक ही गीत गुनगुनाने लगे हैं, 'कसमे वादे प्यार वफा सब, बातें हैं बातों का क्या...। डंडा टोपी वाले ये बाबा बड़े कलाकार भी हैं। सामने वाले को आंकड़े में ऐसे उलझा देते हैं कि वह सोचकर भी बाबा का कुछ नहीं बिगाड़ पाता। धरातल पर हकीकत कुछ और ही है। जंगल वालों को जब भी ठंड लगती है, वे बाबा के संरक्षण में चल रहीं बड़ी-बड़ी गाडिय़ां अग्निदेवता को दान कर देते हैं। बाबा की डिंग हांकने से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता।
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