निर्भया कांड के बाद हुई सामाजिक क्रांति के बाद हम सोच रहे थे कि समाज में महिलाएं सुरक्षित हो जाएंगी। महिलाओं के प्रति अपराधों के लिए कानून भी कड़े किए गए लेकिन कुछ भी तो नहीं बदला। आंकड़ों पर गौर करें तो हालात काफी भयावह नजर आते हैं।
निर्भया बलात्कार कांड के दोषियों को फांसी की सजा सुनाए जाने के बावजूद हवस के दरिन्दों को कोई खौफ नहीं। वास्तविकता तो यह है कि हम सभ्य और लोकतांत्रिक समाज में जीते जरूर हैं लेकिन असल में हम आदिम समाज की फूहड़ता, जड़ता, मूल्यहीनता और चारित्रिक दुर्बलता से उबर नहीं पाए हैं। जिस समाज में हम बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का आह्वान कर रहे हैं वहां बेटियों की आबरू सुरक्षित नहीं। क्या समाज संवेदन शून्य हो चुका है? क्या समाज क्रूरता की सीमाएं पार करता जा रहा है? क्या समाज की भूमिका सिमटती जा रही है? जब हैडमास्टर और शिक्षक ही हवस के भूखे भेडिय़े बन जाएं और बालिकाओं तक न छोड़ें, वह समाज कितना विकृत हो जाएगा, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। ताजा मामला महाराष्ट्र का है, जहां पर 12 आदिवासी बालिकाओं से दुष्कर्म किया गया। राज्य के बुलढाणा स्थित आश्रम स्कूल को हैडमास्टर, शिक्षकों और स्टाफ के लोगों ने हवस का अड्डा बना डाला। दुष्कर्म का शिकार हुई लड़कियों में से तीन गर्भवती हैं। खुलासा तब हुआ जब आश्रम में रहने वाली तीन लड़कियां दीपावली की छुट्टी पर अपने घर गईं तब उनकी तबीयत बिगडऩे पर उन्हें अस्पताल ले जाया गया। 12 से 14 वर्ष की उम्र क्या होती है, इस उम्र में उनसे दुष्कर्म किया गया। लड़कियों ने पहले भी कई बार स्कूल प्रबंधन से शिकायत की थी लेकिन कोई उनकी सुनने को तैयार ही नहीं हुआ। धार्मिक आश्रम, बाल संरक्षण गृह, नारी निकेतन, शिक्षा संस्थान, आफिस कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जहां ऐसी दुष्कर्म की खबरें न आ रही हों। बलात्कार-यह शब्द कितना असर हम पर करता है, अब यह शब्द हमारे मानस के तंतुओं को झनझनाता नहीं है और हम निरपेक्ष भाव से मूक होकर आगे बढ़ जाते हैं। एक महिला की आबरू लुट जाना हमारे मन में कोई खास हलचल नहीं मचाता। ईश्वर ने पुरुष और महिला की शारीरिक संरचना भिन्न इसलिए बनाई है कि यह संसार आगे बढ़े। परिवेश में घुलती अनैतिकता और बेशर्म आचरण ने पुरुषों के मानस में महिला को भोग्या ही निरूपित किया। महिलाओं के शरीर को लेकर सस्ते चुटकलों से लेकर चौराहों पर होने वाली छिछोरी गपशप तक और इंटरनेट और टीवी चैनलों पर दिखाए जाने वाले शो में परोसी जा रही अश£ील सामग्री, घटिया तस्वीरों से लेकर बेहूदा टिप्पणियों तक में पुरुषों की गिरी हुई मानसिकता का सामना हो रहा है। दूसरी ओर वर्तमान दौर में अति महत्वाकांक्षी महिलाएं भी सभी मर्यादाएं तोड़कर आगे बढऩा चाहती हैं। वह जिन्दगी में कामयाबी की बुलंदियों और शोहरत को छू लेना चाहती हैं, इसके लिए कुछ महिलाओं ने मेहनत की और देश का गौरव बढ़ाया। जब बेटियां देश का गौरव बढ़ाती हैं तो देश झूम उठता है लेकिन बेटियों के घर से निकलते ही दरिन्दों की निगाहें उनको घूरने लगती हैं, उनका पीछा किया जाता है और मौका पाते ही दरिन्दे उसे दबोच लेते हैं तब देश का गौरव कहीं गुम हो जाता है।
भरे बाजार में जब महिलाओं से छेड़छाड़ होती है तो भीड़ मौन रहती है, कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करती। दिल्ली में एक वहशी हैवान द्वारा एकतरफा प्यार में अंधा होकर जिस क्रूरता से एक युवती पर ताबड़तोड़ कैंची से प्रहार करके मार डाला, सड़क पर क्रूर पंजों में जकड़ी महिला लोगों से जिन्दगी बचाने की गुहार लगाती रही लेकिन किसी ने भी उसे बचाने की हिम्मत नहीं दिखाई। जब सीसीटीवी फुटेज सामने आई तो माजरा समझ में आया कि बेटियां सुरक्षित नहीं और साथ ही समाज की संवेदनहीनता भी सामने आई। समाज की कड़वी सच्चाई का साक्षात दृश्य चल रहा है और लोग खुली आंखों से उसे अनदेखा कर रहे हैं। आज स्कूल से कालेज तक कई छात्र व्यभिचारी, धर्मगुरु भी व्यभिचारी, उच्च पेशे वाले भी व्यभिचारी, समाज कितना कुरूप हो चुका है।
अब समय आ गया है कि बेटियां असुरक्षित क्यों हैं, शोषित और अपमानित क्यों हैं? हम अपने बच्चों को किस तरह के संस्कार दे रहे हैं,यह सोचने का। यह भी सोचने का विषय है कि पुरुष असहिष्णु, क्रूर और कुकर्मी क्यों बन रहे हैं। क्योंकि यदि पुरुषों में सहिष्णु मर्यादा, विवेक और सदाचार होगा तो नारी की सुरक्षा, उसका सम्मान, उसके अधिकार सब अपने आप उसके अपने हो जाएंगे। घर की चारदीवारी और घर से बाहर उसका शोषण समाप्त हो जाएगा। समाज को समझना होगा कि बेटियों की आबरू की रक्षा की जिम्मेदारी जितनी सरकार की है उससे ज्यादा समाज की है। अगर गुरु, शिक्षक ही नरपिशाच हो जाएंगे तो फिर स्कूलों में बच्चियां सुरक्षित कैसे रहेंगी। समाज की मानसिकता समाज ही बदल सकता है।
निर्भया बलात्कार कांड के दोषियों को फांसी की सजा सुनाए जाने के बावजूद हवस के दरिन्दों को कोई खौफ नहीं। वास्तविकता तो यह है कि हम सभ्य और लोकतांत्रिक समाज में जीते जरूर हैं लेकिन असल में हम आदिम समाज की फूहड़ता, जड़ता, मूल्यहीनता और चारित्रिक दुर्बलता से उबर नहीं पाए हैं। जिस समाज में हम बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का आह्वान कर रहे हैं वहां बेटियों की आबरू सुरक्षित नहीं। क्या समाज संवेदन शून्य हो चुका है? क्या समाज क्रूरता की सीमाएं पार करता जा रहा है? क्या समाज की भूमिका सिमटती जा रही है? जब हैडमास्टर और शिक्षक ही हवस के भूखे भेडिय़े बन जाएं और बालिकाओं तक न छोड़ें, वह समाज कितना विकृत हो जाएगा, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। ताजा मामला महाराष्ट्र का है, जहां पर 12 आदिवासी बालिकाओं से दुष्कर्म किया गया। राज्य के बुलढाणा स्थित आश्रम स्कूल को हैडमास्टर, शिक्षकों और स्टाफ के लोगों ने हवस का अड्डा बना डाला। दुष्कर्म का शिकार हुई लड़कियों में से तीन गर्भवती हैं। खुलासा तब हुआ जब आश्रम में रहने वाली तीन लड़कियां दीपावली की छुट्टी पर अपने घर गईं तब उनकी तबीयत बिगडऩे पर उन्हें अस्पताल ले जाया गया। 12 से 14 वर्ष की उम्र क्या होती है, इस उम्र में उनसे दुष्कर्म किया गया। लड़कियों ने पहले भी कई बार स्कूल प्रबंधन से शिकायत की थी लेकिन कोई उनकी सुनने को तैयार ही नहीं हुआ। धार्मिक आश्रम, बाल संरक्षण गृह, नारी निकेतन, शिक्षा संस्थान, आफिस कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जहां ऐसी दुष्कर्म की खबरें न आ रही हों। बलात्कार-यह शब्द कितना असर हम पर करता है, अब यह शब्द हमारे मानस के तंतुओं को झनझनाता नहीं है और हम निरपेक्ष भाव से मूक होकर आगे बढ़ जाते हैं। एक महिला की आबरू लुट जाना हमारे मन में कोई खास हलचल नहीं मचाता। ईश्वर ने पुरुष और महिला की शारीरिक संरचना भिन्न इसलिए बनाई है कि यह संसार आगे बढ़े। परिवेश में घुलती अनैतिकता और बेशर्म आचरण ने पुरुषों के मानस में महिला को भोग्या ही निरूपित किया। महिलाओं के शरीर को लेकर सस्ते चुटकलों से लेकर चौराहों पर होने वाली छिछोरी गपशप तक और इंटरनेट और टीवी चैनलों पर दिखाए जाने वाले शो में परोसी जा रही अश£ील सामग्री, घटिया तस्वीरों से लेकर बेहूदा टिप्पणियों तक में पुरुषों की गिरी हुई मानसिकता का सामना हो रहा है। दूसरी ओर वर्तमान दौर में अति महत्वाकांक्षी महिलाएं भी सभी मर्यादाएं तोड़कर आगे बढऩा चाहती हैं। वह जिन्दगी में कामयाबी की बुलंदियों और शोहरत को छू लेना चाहती हैं, इसके लिए कुछ महिलाओं ने मेहनत की और देश का गौरव बढ़ाया। जब बेटियां देश का गौरव बढ़ाती हैं तो देश झूम उठता है लेकिन बेटियों के घर से निकलते ही दरिन्दों की निगाहें उनको घूरने लगती हैं, उनका पीछा किया जाता है और मौका पाते ही दरिन्दे उसे दबोच लेते हैं तब देश का गौरव कहीं गुम हो जाता है।
भरे बाजार में जब महिलाओं से छेड़छाड़ होती है तो भीड़ मौन रहती है, कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करती। दिल्ली में एक वहशी हैवान द्वारा एकतरफा प्यार में अंधा होकर जिस क्रूरता से एक युवती पर ताबड़तोड़ कैंची से प्रहार करके मार डाला, सड़क पर क्रूर पंजों में जकड़ी महिला लोगों से जिन्दगी बचाने की गुहार लगाती रही लेकिन किसी ने भी उसे बचाने की हिम्मत नहीं दिखाई। जब सीसीटीवी फुटेज सामने आई तो माजरा समझ में आया कि बेटियां सुरक्षित नहीं और साथ ही समाज की संवेदनहीनता भी सामने आई। समाज की कड़वी सच्चाई का साक्षात दृश्य चल रहा है और लोग खुली आंखों से उसे अनदेखा कर रहे हैं। आज स्कूल से कालेज तक कई छात्र व्यभिचारी, धर्मगुरु भी व्यभिचारी, उच्च पेशे वाले भी व्यभिचारी, समाज कितना कुरूप हो चुका है।
अब समय आ गया है कि बेटियां असुरक्षित क्यों हैं, शोषित और अपमानित क्यों हैं? हम अपने बच्चों को किस तरह के संस्कार दे रहे हैं,यह सोचने का। यह भी सोचने का विषय है कि पुरुष असहिष्णु, क्रूर और कुकर्मी क्यों बन रहे हैं। क्योंकि यदि पुरुषों में सहिष्णु मर्यादा, विवेक और सदाचार होगा तो नारी की सुरक्षा, उसका सम्मान, उसके अधिकार सब अपने आप उसके अपने हो जाएंगे। घर की चारदीवारी और घर से बाहर उसका शोषण समाप्त हो जाएगा। समाज को समझना होगा कि बेटियों की आबरू की रक्षा की जिम्मेदारी जितनी सरकार की है उससे ज्यादा समाज की है। अगर गुरु, शिक्षक ही नरपिशाच हो जाएंगे तो फिर स्कूलों में बच्चियां सुरक्षित कैसे रहेंगी। समाज की मानसिकता समाज ही बदल सकता है।
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