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Wednesday 11 August 2021

शिक्षा के अधिकार कानून की हकीकत

 शिक्षा किसी भी सभ्य समाज की मूलभूत आवश्यकता है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि शिक्षा से समाज को सभ्य बनाया जा सकता है। शिक्षा समाज के विकास, आर्थिक उन्नति और सार्वभौमिक सम्मान के लिए एक आवश्यक घटक है। हर नागरिक का यह मौलिक अधिकार होना चाहिए कि उसे जीने के अधिकार के रूप में शिक्षा का अधिकार भी हासिल हो।

यूनेस्को की शिक्षा के लिए वैश्विक मॉनिटरिंग रिपोर्ट 2010 के मुताबिक, लगभग 135 देशों ने अपने संविधान में शिक्षा को अनिवार्य कर दिया है तथा मुफ्त एवं भेदभाव रहित शिक्षा सबको देने का प्रावधान किया है। भारत ने सन् 1950 में 14 वर्ष तक के बच्चों को मुफ्त तथा अनिवार्य शिक्षा देने के लिए संविधान में प्रतिबद्धता का प्रावधान किया था। इसे अनुच्छेद 45 के तहत राज्य के नीति निर्देशक सिद्घांतों में शामिल किया गया है। 12 दिसंबर, 2002 को संविधान में 86वां संशोधन किया गया और इसको संशोधित करके शिक्षा को मौलिक अधिकार बना दिया गया।

बच्चों के लिए मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम 1 अप्रैल, 2010 को पूर्ण रूप से लागू हुआ। इस अधिनियम के अंतर्गत 6 से लेकर 14 वर्ष के सभी बच्चों के लिए शिक्षा को पूर्णतः मुफ्त एवं अनिवार्य कर दिया गया है। अब यह केंद्र तथा राज्यों के लिए कानूनी बाध्यता है कि मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा सभी को सुलभ हो सके। सरल शब्दों में इसका अर्थ यह हुआ कि सरकार प्रत्येक बच्चे की आठवीं कक्षा तक की नि:शुल्क पढाई के लिए जिम्मेदार होगी, चाहे वह बालक हो अथवा बालिका अथवा किसी भी वर्ग का हो। इस प्रकार इस कानून ने देश के बच्चों को मजबूत, साक्षर और अधिकारसंपन्न बनाने का मार्ग तैयार कर दिया है।

किसको लाभ मिलेगा?

शिक्षा का अधिकार अधिनियम (राइट टू एजुकेशन एक्टआर.टी.ई) माध्यमिक एवं उच्चतर माध्यमिक शिक्षा तथा बच्चों तक शिक्षा पहुँचाने के लिए एक महत्त्वपूर्ण कदम है। इस अधिनियम का सर्वाधिक लाभ श्रमिकों के बच्चों, बाल मजदूरों, प्रवासी बच्चों, विशेष आवश्यकतावाले बच्चों या फिर ऐसे बच्चों को जो सामाजिक, सांस्कृतिक आर्थिक, भौगोलिक, भाषाई अथवा लिंग कारकों की वजह से वंचित बच्चों में शामिल हैं, मिलेगा। इस अधिनियम के कार्यान्वयन के साथ ही यह उम्मीद भी है इससे विद्यालय छोड़ने तथा विद्यालय न जानेवाले बच्चों को अच्छी गुणवत्ता की शिक्षा प्रशिक्षित शिक्षकों के माध्यम से दी जा सकेगी।

अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान

इस अधिनियम में सभी बच्चों के लिए गुणवत्तापूर्ण और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने का प्रावधान हैः जिससे ज्ञान, कौशल और मूल्यों से लैस करके उन्हें भारत का प्रबुद्ध नागरिक बनाया जा सके। यदि विचार किया जाए तो आज देश भर में स्कूलों से वंचित लगभग एक करोड़ बच्चों को शिक्षा प्रदान करना सचमुच हमारे लिए एक दुष्कर कार्य है। इसलिए इस लक्ष्य को साकार करने के लिए सभी हितधारकोंमातापिता, शिक्षकों, स्कूलों, गैरसरकारी संगठनों और कुल मिलाकर समाज, राज्य सरकारों और केंद्र सरकार की ओर से एकजुट प्रयास का आह्वान किया गया है।

इस अधिनियम में इस बात का प्रावधान किया गया है कि पहुँच के भीतर वाला कोई निकटवर्ती स्कूल किसी भी बच्चे को प्रवेश देने से इनकार नहीं करेगा। इसमें यह भी प्रावधान शामिल है कि प्रत्येक 30 छात्र के लिए एक शिक्षक के अनुपात को कायम रखते हुए पर्याप्त संख्या में सुयोग्य शिक्षक स्कूलों में मौजूद होने चाहिए। स्कूलों को पाँच वषो के भीतर अपने सभी शिक्षकों को प्रशिक्षित करना होगा। उन्हें तीन वषो के भीतर समुचित सुविधाएँ भी सुनिश्चित करनी होंगी, जिससे खेल का मैदान, पुस्तकालय, पर्याप्त संख्या में अध्ययन कक्ष, शौचालय, शारीरिक विकलांग बच्चों के लिए निर्बाध पहुँच तथा पेय जल सुविधाएँ शामिल हैं। स्कूल प्रबंधन समितियों के 75 प्रतिशत सदस्य छात्रों की कार्यप्रणाली और अनुदानों के इस्तेमाल की देखरेख करेंगे। स्कूल प्रबंधन समितियों अथवा स्थानीय अधिकारी स्कूल से वंचित बच्चों की पहचान करेंगे और उन्हें समुचित प्रशिक्षण के बाद उनकी उम्र के अनुसार समुचित कक्षाओं में प्रवेश दिलाएँगे। सम्मिलित विकास को बढावा देने के उद्देश्य से निजी स्कूल भी सबसे निचली कक्षा में समाज के गरीब और हाशिए पर रहनेवाले वगो के लिए 25 प्रतिशत सीटें आरक्षित करेंगे। इसे साकार करना एक बड़ी चुनौती है। देश में लगभग एक करोड़ बच्चे स्कूलों से वंचित हैं, जो अपने आप में एक बड़ी संख्या है। प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी, स्कूलों में सुविधाओं का अभाव, अतिरिक्त स्कूलों की आवश्यकता और धन की कमी होना अन्य बड़ी चुनौतियाँ हैं।

मौजूदा स्थिति में लगभग 46 प्रतिशत स्कूलों में बालिकाओं के लिए शौचालय नहीं हैं, देश भर में 12.6 लाख शिक्षकों के पद खाली हैं। देश के 12.9 लाख मान्यता प्राप्त प्रारंभिक स्कूलों में अप्रशिक्षित शिक्षकों की संख्या 7.72 लाख है, जो कुल शिक्षकों की संख्या का 40 प्रतिशत है। लगभग 53 प्रतिशत स्कूलों में अधिनियम के प्रावधान के अनुसार निर्धरित छात्रशिक्षक अनुपात 1:30 से अधिक है। रिक्तियों को भरने के उद्देश्य से आगामी छह वषोर्ं में लगभग पाँच लाख शिक्षकों को भर्ती करने की योजना है।

जहाँ तक धन की कमी का प्रश्न है, इस अधिनियम में राज्यों के साथ हिस्सेदारी का प्रावधान है, जिसमें कुल व्यय में केंद्र सरकार का हिस्सा 55 प्रतिशत है। एक अनुमान के अनुसार इस अधिनियम के क्रियान्वयन के लिए आगामी पाँच वर्ष में 1.71 लाख करोड़ रुपए की आवश्यकता होगी। इनमें से केंद्रीय बजट में 15,000 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है। वहीं दूसरी ओर केंद्र सरकार द्वारा शैक्षिक कार्यक्रमों के लिए पहले से राज्यों को दिए गए लगभग 10,000 करोड़ रुपए का व्यय नहीं हो पाया है। इस अधिनियम के क्रियान्वयन के लिए वित्त आयोग ने राज्यों को 25,000 करोड़ रुपए आवंटित किए हैं। इसके बावजूद बिहार, उत्तर प्रदेश और उड़ीसा जैसे राज्यों ने अतिरिक्त निधि की माँग की है। इस परियोजना की सफलता के लिए सभी हितधारकों की ओर से एक ईमानदार पहल की आवश्यकता है। सामने कई चुनौतियाँ भी हैं। निम्न आय समूहवाले मातापिता परिवार की आय बढाने के लिए अपने बच्चों को काम करने के लिए भेजते हैं। इस उम्र में विवाह होना और जीविका के लिए लोगों का प्रवास करना भी ऐसे मुद्दे हैं।

इस प्रकार भारत ने वैधानिक समर्थन के साथ एक सशक्त देश की आधारशिला रखने के लिए एक व्यापक कार्यक्रम शुरू किया है। वास्तव में यह शिक्षा को व्यापक बनाने की दिशा में उठाया गया एक अद्वितीय कदम है। शिक्षा का मुद्दा भारत के संविधान की समवर्ती सूची में शामिल है, अतः इसके लिए सभी स्तरों पर बेहतर सहयोग की जरूरत है।

भारतीय शिक्षा के इतिहास में अब जो नई इबारत लिखी गई है, उसे कई वषोर्ं पहले ही हो जाना चाहिए था। भारत सरकार द्वारा सबको शिक्षा मिले, इसके लिए कई तरह की योजनाएँ पहले ही चल रही हैं। सर्व शिक्षा अभियान, राष्ट्रीय साक्षरता मिशन, ऑपरेशन ब्लैकबोर्ड आदि योजनाओं से शायद ही कोई अपरिचित हो; पर हमें इन योजनाओं पर भी सरसरी तौर पर एक नजर जरूर डाल लेनी चाहिए। पिछली योजनाओं का पोस्टमार्टम किए बिना और उसके अनुभवों से सीखे बिना इस कानून को पटरी पर लाना आसान न होगा।

कहा जाता है कि भारत की आत्मा गाँवों में निवास करती है गाँव शब्द सुनते ही हमारी आँखों में एक ऐसी छवि उभरती है जहाँ मूलभूत सुविधाओं का हमेशा अभाव रहता है, खासकर चिकित्सा और शिक्षा के क्षेत्र में। भारत सरकार द्वारा इन मूलभूत सुविधाओं के लिए पिछले सालों में लाखाकरोड़ों रुपए खर्च किए गए पर समस्या जसकी-तस बनी हुई है। उचित चिकित्सा के अभाव में न जाने कितनी ही जानें रोज जाती हैं। एड्स से मरनेवालों की अपेक्षा आज भी ज्यादा जानें मलेरिया, डायरिया, उचित प्रसव के अभाव आदि से जाती हैं। शिक्षा के क्षेत्र में तो स्थिति और भयावह है। गाँवों में प्राथमिक शिक्षा की स्थिति से आप और हम पूरी तरह से परिचित हैं। हर 30 बच्चों पर एक शिक्षक की सरकार की योजना शायद ही कहीं नजर आती है, कई जगह तो पूराका-पूरा स्कूल एक शिक्षक के भरोसे से चल रहा है। ऐसे में शिक्षा के स्तर में सुधार या जिस प्रकार शिक्षा आज हम हमारे स्कूलों में दे रहे हैं, क्या वाकई वह ग्रामीण इलाकों के बच्चों को फर्राटेदार अंग्रेजी बोलनेवाले गुणवत्तापूर्ण निजी स्कूलों के बच्चों से मुकाबला करने के लिए तैयार कर पाएँगी। ऐसे समय में सरकारी स्कूलों के बच्चों में आनेवाली हीन भावना का जिम्मेदार आखिर कौन होगा? शिक्षा की असमानता भी आज मुख्य समस्या बनी हुई है। निजी स्कूलों और सरकारी स्कूलों में शिक्षा के स्तर में जमीनआसमान का अंतर है। यही कारण है कि आज भी अभिभावक सरकारी स्कूलों की अपेक्षा निजी स्कूलों को ज्यादा तरजीह देते हैं।

आज हमारे देश में लगभग 22 करोड़ बच्चे स्कूली शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। इतनी बड़ी संख्या तक उच्च गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पहुँचाना सरकार के लिए वाकई आसान नहीं है। कुछ केंद्रीय विद्यालय इस कार्य में ईमानदारीपूर्वक अवश्य लगे हुए हैं पर इन विद्यालयों तक सिर्फ 10 लाख बच्चों की ही पहुँच है। ऐसे में सरकार के सामने सिर्फ एक ही विकल्प बचता है कि ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों के सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता ब़ाई जाए, पूर्ण रूप से प्रशिक्षित शिक्षकों की ही भर्ती की जाएँ और समयसमय पर शिक्षकों को उचित प्रशिक्षण भी सुनिश्चित किया जाए।

केंद्र सरकार इस कानून को पूर्ण रूप से फलीभूत अपने बलबूते पर कभी नहीं कर सकती जब तक उन्हें राज्य सरकार, लोकल कम्युनिटीस और पंचायतों का पूरा सहयोग न मिले। राज्य सरकारों का ही यह फर्ज बनता है कि जिन जगहों पर स्कूल नहीं हैं, वहाँ जल्दसे-जल्द स्कूल खोलें। उनमें पर्याप्त शिक्षकों की भर्ती करें और गुणवत्तापूर्ण शिक्षण व्यवस्था भी सुनिश्चित करें। वैसे पिछले कुछ सालों में प्राथमिक स्कूलों में बच्चों की संख्या में लगातार ब़ता ग्राफ कुछ सुकून देनेवाला तो अवश्य है पर सरकारी स्कूलों के स्तर में आ रही लगातार गिरावट को रोके बिना सिर्फ स्कूल तक बच्चों को पहुँचाने से काम नहीं बननेवाला। वहीं सरकार द्वारा कानून बना देने से हमें यह सोचकर निश्चित नहीं बैठना चाहिए कि अब यह सब सरकार का ही काम है, हमें भी देश का जागरूक नागरिक होने के नाते बच्चों को उनके मौलिक अधिकार दिलाने के लिए ईमानदारी से प्रयास करने चाहिए, ताकि कल के देश के भविष्य इन बच्चों के सामने हमें शमिरंदा न होना पड़े।

शिक्षा की वर्तमान स्थिति

विश्व स्तर पर आज हमारा भारत देश हर तरह से संपन्न और प्रगतिशील माना जाता है। आज देश ने आकाश से ब़ढकर ब्रह्मांड को छूने में कामयाबी हासिल की है। लेकिन इस पूरे प्रगतिशील दौर में आज भी देश में शिक्षा का स्तर अधिक चिंताजनक बना हुआ है। आज भले ही हमारे पास हर एक किलोमीटर पर स्कूल और पाठशालाएँ मौजूद हों लेकिन शिक्षा का स्तर लगातार गिरता जा रहा है। आज के दौर में भले ही हमने ज्यादासे-ज्यादा बच्चों को स्कूल में दाखिला दिला दिया हो लेकिन शिक्षा के पैमानों में इन बच्चों की स्थिति और भी चिंताजनक हो गई है। देश में सभी के लिए मुफ्त शिक्षा का बिल भले ही पास हो गया हो लेकिन यह आधारभूत अधिकार अभी भी केवल कागजों पर ही है।

स्कूली शिक्षा की समस्याओं पर विचार करने के सिलसिले मे जो कुछ प्रश्न बारबार उठाए जाते हैं वे हैंशिक्षकों की अनुपस्थिति, अभिभावकों की उदासीनता, सही पाठ्यक्रम का अभाव, अध्यापन में खामियाँ इत्यादि। परंतु इन समस्याओं को अलगअलग रूप में नहीं देखा जा सकता, क्योंकि इनकी जड़ें सारी व्यवस्था में फैली हैं। इसलिए व्यवस्था में आमूल परिवर्तन लाना जरूरी है। इसके लिए हमें स्कूली शिक्षा व्यवस्था की मूल समस्याओं पर गौर करना होगा। पहली मूल समस्या है प्रवेश की कमी। आजादी के 64 साल बाद भी हमारे देश में करोड़ों बच्चे पॄाई से वंचित रह जाते हैं। पूरे देश में यह संख्या 30 प्रतिशत से कम नहीं होगी। आधुनिकतम सरकारी आँकड़ों के मुताबिक कक्षा 10 तक पहुँचतेपहुँचते 61 प्रतिशत बच्चों ने पॄढ।ई छोड़ दी थी। प्रवेश की समस्या के समाधान के लिए सबसे पहला कार्य होना चाहिए, अतिरिक्त स्कूलों का निर्माण, अतिरिक्त शिक्षकों की बहाली और अतिरिक्त शिक्षकप्रशिक्षण संस्थानों का निर्माण। शिक्षा की दूसरी मूल समस्या है, इसकी अति निम्न गुणवत्ता। इसे ब़ाने के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण उपाय है न्यूनतम मानकों का निर्धारण कर उन्हें सभी स्कूलों में लागू करना। शिक्षा अधिकार विधेयक की अनुसूची में कुछ मानक निर्धरित किए गए हैं, परंतु ये नितांत अपर्याप्त हैं।

प्रवेश एवं गुणवत्ता, इन दोनों समस्याओं का असली कारण है वित्त का अभाव। शिक्षा अधिकार विधेयक से संलग्न वित्तीय स्मरण पत्र में कहा गया है, ॔विधेयक को अमल में लाने के लिए आवश्यक वित्तीय संसाधनों का परिणाम निर्धारित करना फिलहाल संभव नहीं है।’ यह कथन गलत है। पिछले 10 वषोर्ं में भारत के हर बच्चे को नि:शुल्क प्रारंभिक शिक्षा प्रदान करने में जो खर्च होगा उसका कई बार अनुमान लगाया जा चुका है। 1999 में तापस मजूमदार समिति ने बताया कि इसके लिए अगले 10 वषोर्ं में 1,37,000 करोड़ अतिरिक्त रकम लगेगी। 2005 में शिक्षा परामर्श बोर्ड के एक विशेषज्ञ दल ने अनुमान लगाया था कि इस पर 6 साल तक प्रतिवर्ष न्यूनतम 53,500 करोड़ और अधिकतम 73 हजार करोड़ रुपए का अतिरिक्त व्यय होगा। फिलहाल प्रारंभिक शिक्षा के लिए सर्वशिक्षा अभियान के माध्यम से धनराशि उपलब्ध कराई जाती है। दसवीं पंचवर्षीय योजना की तुलना में करीब दोगुनी वृद्धि के बाद भी ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में सर्वशिक्षा अभियान के लिए प्रतिवर्ष करीब 30,000 करोड़ रुपए का प्रावधान है। इस रकम से न तो देश के सभी बच्चों को स्कूल में प्रवेश दिलाया जा सकता है और न गुणवत्ता में विशेष परिवर्तन लाया जा सकता है।

हमारी स्कूली शिक्षा व्यवस्था की तीसरी मूल समस्या है, इसमें व्याप्त असमानता और भेदभाव। देश के सामाजिक वर्गीकरण के साथसाथ हमारे यहाँ स्कूलों का भी वर्गीकरण है, जिसके मुताबिक धनी और विशिष्ट वर्ग के बच्चे ज्यादा फीसवाले अच्छे स्कूलों में पॄढते हैं और गरीब व निम्न वर्ग के बच्चे, सामान्य और कम फीसवाले स्कूलों में, जिनकी संख्या कुल स्कूली छात्रों का करीब 80 प्रतिशत है। इसके चलते देश का सामाजिक विभाजन और भी ब़ढता जा रहा है। सभी स्कूलों में न्यूनतम मानक लागू करना न केवल शिक्षा की गुणवत्ता ब़ाढ सकता है, बल्कि शिक्षा व्यवस्था में मौजूद भेदभाव को मिटाने में भी मदद कर सकता है। भेदभाव मिटाने का दूसरा उपाय है पड़ोस के स्कूल के सिद्घांत को लागू करना जिसके मुताबिक हर स्कूल को उसके लिए निर्धरित पोषक क्षेत्र अथवा पड़ोस के सभी बच्चों को दाखिला देना होगा। इसका भी शिक्षाधिकार विधेयक में कोई प्रावधान नहीं है। बल्कि, स्कूलों के वर्तमान वर्गीकरण को कायम रखने की व्यवस्था है।

ग्यारवीं पंचवर्षीय योजना में शिक्षा के क्षेत्र में सार्वजनिकनिजी सहभागिता (पी.पी.पी.) का सिद्घांत लागू करने की नीति बन चुकी है। यानी अब सार्वजनिक धन का उपयोग सरकार शिक्षा के निजीकरण और बाजारीकरण के लिए करने जा रही है। कुछ प्रदेश सरकारों ने तो सरकारी स्कूलों को निजी कंपनियों को देने के लिए टेंडर तक जारी करने या फिर अन्य तरीकों से सौंपने की पूरी तैयारी कर ली है। योजना आयोग ने स्कूली शिक्षा को सार्वजनिकनिजी सहभागिता के साँचे में ढालने के लिए एक बैठक बुलाई थी, जिसमें 18 कॉरपोरेट घरानों के प्रतिनिधि मौजूद थे, एक भी शिक्षाविद या शिक्षक नहीं था। शिक्षा को कारोबार में बदलने की इस घोषित सरकारी नीति के चलते इस बिल का खोखलापन अपने आप जाहिर हो जाता है।

वैश्वीकरण की नवउदारवादी नीति की तर्ज पर बने इस सरकारी बिल के पैरोकार सरकार के बाहर भी हैं। उनका कहना है कि यह बिल निजी स्कूलों की भी जवाबदेही तय करता है। उनका इशारा उस प्रावधान की ओर है, जो निजी स्कूलों में कमजोर वगोर्ं और वंचित समुदायों के बच्चों के लिए 25 फीसदी सीटें आरक्षित करता है। इनकी फीस सरकार की ओर से दी जाएगी। इससे बड़ा फूहड़ मजाक और क्या हो सकता था। एक, आज 614 आयु समूह के लगभग 20 करोड़ बच्चों में से 4 करोड़ बच्चे निजी स्कूलों में हैं। इनके 25 फीसदी यानी महज एक करोड़ बच्चों के लिए यह प्रावधान होगा। शेष बच्चों का क्या होगा? दूसरा, सब जानते हैं कि निजी स्कूलों में टयूशन फीस के अलावा अन्य कई प्रकार के शुल्क लिए जाते हैं, जिसमें कंप्यूटर, पिकनिक, डांस आदि शामिल हैं। यह सब और इन स्कूलों के अभिजात माहौल के अनुकूल कीमती पोशाकें गरीब बच्चे कहाँ से लाएँगे। इनके बगैर वे वहाँ पर कैसे टिक पाएँगे? तीसरा, यदि किसी तरह वे 8वीं कक्षा तक टिक भी गए, तो उसके बाद उनका क्या होगा? ये बच्चे फिर सड़कों पर आ जाएँगे जबकि उनके साथ पॄढे हुए फीस देनेवाले बच्चे 12वीं कक्षा पास करके प्रतियोगी परीक्षा या विदेशी विश्वविद्यालयों की परीक्षा देंगे। इन सवालों का एक ही जवाब है, समान स्कूल प्रणाली जिसमें प्रत्येक स्कूल (निजी स्कूलों समेत) पड़ोसी स्कूल होगा।

सुप्रीम कोर्ट के उन्नीकृष्ण फैसले (1993) के अनुसार अनुच्छेद 41 के मायने हैं कि शिक्षा का अधिकार 14 वर्ष की आयु में खत्म नहीं होता, वरन सैकंडरी व उच्च शिक्षा तक जाता है। फर्क इतना है कि 14 वर्ष की आयु तक की शिक्षा के लिए सरकार पैसों की कमी का कोई बहाना नहीं कर सकती, जबकि सैकंडरी व उच्च शिक्षा को देते वक्त उसकी आर्थिक क्षमता को ध्यान में रखा जा सकता है। जनता को उम्मीद थी कि यह बिल उच्च शिक्षा के दरवाजे प्रत्येक बच्चे के लिए समानता के सिद्घांत पर खोल देगा। तभी तो रोजगार के लिए सभी समुदायों के बच्चे बराबरी से होड़ कर पाएँगे और साथ में भारत में अर्थव्यवस्था में समान हिस्सेदारी के हकदार बनेंगे।

इन सभी सरकारी आँकड़ों से शिक्षा की कार्यशैली से तो आम जनता को भ्रमित किया जा सकता है, पर शिक्षा के लिए शिक्षा योजना अधिकार का क्रियान्वयन होना जरूरी है। सिर्फ शिक्षा का मौलिक अधिकार का कानून सरकारी दस्तावेजों से ही नहीं मिल सकता है। सरकारी और गैर सरकारी संगठनों को अब जड़चेतन के साथ जुड़कर शुरुआत करनी होगी। आम जनता की भागीदारी के लिए मीडिया को भी सामने आना होगा, लोगों को जागरूक और प्रोत्साहित करना होगा। शिक्षा के इस अधिकार को पूरी तरह से सपफल बनाने के लिए निम्नलिखित बिंदुओं पर विचार किया जा सकता है

  • शिक्षित युवाओं को शिक्षक बनने की राह में प्रोत्साहित किया जाना चाहिए एवं उचित ट्रेनिंग और आय देना चाहिए।
  • सरकार को स्कूली पाठ्यक्रम में अधिक गुणवत्ता के साथ शिक्षा की उचित व्यवस्था पर केंद्रित होना चाहिए।
  • इस चुनौती को जन भागीदारी, मीडिया और गैर सरकारी संगठनों द्वारा एक साथ मिलकर किया जाना चाहिए।
  • सिर्फ शहरों और जिलों तक ही सीमित न रहकर गाँवों और छोटे कस्बों तक शिक्षा के सही मायनों को पहुँचाना होगा। शिक्षा नीति के सही क्रियान्वयन की आवश्यकता है।

भारत आज विश्व की एक प्रमुख आर्थिक महाशक्ति है। चीन के बाद सबसे तेज आर्थिक विकास दर हमारी है। हमारे यहाँ दुनिया का दूसरे नंबर का सबसे बड़ा और गतिशील व मजबूत उपभोक्ता बाजार मौजूद है। इन तमाम तमगों के बीच अशिक्षा हमारी एक बड़ी भयावह सच्चाई है।

इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब भारत आजाद हुआ था तब देश के बहुसंख्यक लोग अशिक्षित थे। लेकिन क्या आप इस तथ्य से परिचित हैं कि भारत में आज 64 साल बाद अशिक्षितों की संख्या 1947 की कुल जनसंख्या से भी ज्यादा है? 1961 में सिर्फ 28 प्रतिशत भारतीय शिक्षित थे और 2006 में शिक्षित भारतीयों का प्रतिशत ब़कर 66 हो चुका था, फिर भी भारत में इस समय 38 करोड़ लोग ऐसे हैं जो लिखपॄढ नहीं सकते।

38 करोड़ बहुत बड़ी आबादी है। आजादी के समय की यह भारत की कुल आबादी से बड़ी तादाद तो है ही, साथ ही अगर हिंदुस्तान के अशिक्षितों को एक देश के रूप में चिहि्नत किया जाए तो चीन व शिक्षित भारत के बाद दुनिया का आबादी के लिहाज से तीसरा सबसे बड़ा देश होगा यह अशिक्षित भारत।

शिक्षा का अधिकार कानून की अड़चनें

शिक्षा का अधिकार की माँग है कि देश में 6 से 14 वर्ष का कोई बच्चा स्कूल जाने से वंचित न रहे। लेकिन हकीकत कुछ और ही बयां करती है। आज भी हम अपने आसपास अनेक मासूम बच्चों को चाय की दुकान पर खाली कप उठाते और ढाबे पर बर्तन साफ करते देख सकते हैं। सरकार का प्रयास इस कानून के माध्यम से इन मासूमों को स्कूल की राह दिखाना है। लेकिन न तो अकेली सरकार और न ही अभिभावक इस प्रयास को परवान च़ा सकते हैं, बल्कि सामूहिक प्रयास से ही शिक्षा के अधिकार के लक्ष्यों को हासिल किया जा सकता है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो बाकी कई नियमों की तरह यह कानून भी कागजों में सिमट कर रह जाए तो कोई हैरानी वाली बात नहीं होगी।

टायरपंक्चर की दुकान पर पसीने से तरबतर रोजमर्रा के काम में लगे कल्लन को यह मालूम नहीं कि देश में शिक्षा का अधिकार अब मौलिक अधिकार बन चुका है। भला मालूम भी कैसे हो, उस पर तो महज 11 वर्ष की आयु में परिवार के भरणपोषण का बोझ जो आन पड़ा। पापा बीमार रहते हैं और माँ दो छोटी बहनों की देखभाल में लगी रहती है। ऐसे में परिवार के सदस्यों के लिए दो रोटी का जुगाड़ करने की कशमकश में बेहतर शिक्षा हासिल करने के उसके अरमान आँसू बनकर बह रहे हैं।

जी हाँ, यह बात एकदम सही है। विभिन्न शहरों में जगहजगह रोजमर्रा के काम में जुटे 6 से 14 वर्ष की आयु के सैकड़ों बच्चों को शिक्षा के अधिकार का अतापता तक नहीं है। हालाँकि शिक्षा का अधिकार लागू होने से पहले भी सर्व शिक्षा अभियान के तहत इन बच्चों को स्कूलों तक पहुँचाने के लिए सर्वे के जरिए प्रयास हो चुका है, लेकिन यह सर्वे महज औपचारिकता बनकर रह गया है।

विभिन्न जिलों में कई प्राइमरी स्कूल ऐसे हैं जिनका अपना कोई भवन नहीं है। अगर भवन है भी तो वो इतना जर्जर कि हर वक्त हादसे का अंदेशा बना रहता है। स्कूल भवन न होने की वजह से मंदिरों व चौपालों में कक्षाएँ लगाई जाती हैं।

कुछ चौंकाने वाले तथ्य

भारत के एक गैर सरकारी संगठन ने देशव्यापी सर्वेक्षण में पाया है कि 50 प्रतिशत बच्चे ऐसे हैं जो वैसे तो पाँचवीं कक्षा तक पहुँच गए हैं लेकिन वे दूसरी कक्षा की किताबों को भी पॄढने मे सक्षम नही हैं।

संगठन ने 575 जिलों के 16 हजार गाँवों में तीन लाख परिवारों के बीच यह सर्वेक्षण किया। रिपोर्ट से यह निचोड़ निकला कि ग्रामीण भारत के आधे बच्चे सामान्य स्तर से तीन कक्षा नीचे के स्तर पर हैं।

रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि प्राथमिक शिक्षा में पिछले कुछ वषोर्ं मे बेहतरी के कुछ प्रमाण भी मिले हैं। रिपोर्ट के अनुसार कुछ राज्यों में इस स्थिति में सुधार आया। ये राज्य हैं महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश, छत्तीसग़, पंजाब, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक। राज्यों में मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और महाराष्ट्र सबसे ऊपर हैं, जिनमें 70 प्रतिशत पाँचवीं कक्षा के बच्चे दूसरी कक्षा का पाठ पॄढने में सक्षम पाए गए।

इसके अलावा रिपोर्ट गणित की पॄाई के बारे में भी निराशाजनक तस्वीर पेश करती है। इस रिपोर्ट के अनुसार सिर्फ 36 प्रतिशत बच्चे ही ऐसे हैं जो सामान्य गुणाभाग कर सकते हैं। वर्ष 2007 में यह संख्या 41 प्रतिशत पाई गई थी। मतलब यह कि इस क्षेत्र में हालात खराब हुए हैं।

यहाँ वास्तविक समस्या यह है कि लोगों को यह पता ही नहीं कि शिक्षा वास्तव में किस चीज का नाम है। हम शिक्षा का मूल्य भी वैसे ही आँकते हैं जैसे कि जमीन का भाव लगा रहे हों या शेयर बाजार में शेयरों का मोलभाव कर रहे हों। हम केवल वैसी ही शिक्षा उपलब्ध कराना चाहते हैं जो छात्रों को अधिक पैसा कमाने में सक्षम बनाए। हम बमुश्किल ही इस बारे में सोचने की जहमत उठाते हैं कि शिक्षित व्यक्ति के चरित्र में सुधार लाना भी एक पक्ष है। हम मानते हैं कि लड़कियों को कमाने की कोई आवश्यकता नहीं, इसलिए उन्हें क्यों पॄाया जाए। जब तक ये विचार मौजूद रहेंगे, तब तक शिक्षा के वास्तविक मूल्य को जानने की कोई उम्मीद नहीं बनेगी।

रिपोर्ट के अनुसार प्राइवेट ट्यूशन का चलन ब़ाढ है। हमारे यहाँ आमतौर पर यह धारणा रही है कि प्राइवेट स्कूलों में शिक्षा का स्तर बेहतर होता है। रिपोर्ट कहती है कि 2005 की तुलना मे 2008 में प्राइवेट स्कूलों मे दाखिला लेनेवाले बच्चों की संख्या ब़ी है।

इस सर्वेक्षण में कुछ सकारात्मक तथ्य भी सामने आए हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि नामांकन में स्पष्ट वृद्धि दर्ज की गई है, यानी स्कूल जानेवाले बच्चों की संख्या ब़ी है। इस क्षेत्र में बिहार ने काफी अच्छा काम किया है।

रिपोर्ट मे इस बात पर भी ध्यान दिया गया है कि जिन बच्चों का नाम स्कूलों के रजिस्टरों मे दर्ज है, उनमें से कितने बच्चे वास्तव में स्कूल जाते हैं। रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण भारत के अधिकतर सरकारी स्कूलों में किसी भी दिन उपस्थिति दर 75 प्रतिशत के आसपास रहती है। हालाँकि केरल, कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, गोवा, तमिलनाडु और नागालैंड जैसे कुछ राज्यों में किसी भी दिन की उपस्थिति 90 प्रतिशत तक रहती है।

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