राज्य सरकार की लाख कवायद के बावजूद विभिन्न विभागों में नियुक्ति की
प्रक्रिया धीमी है। इसके लिए अधिकारियों की उदासीन प्रवृत्ति और लचर
कार्यसंस्कृति जिम्मेदार है। विभिन्न विभागों में हजारों पद खाली पड़े हैं,
लेकिन अधिकारियों ने नियुक्ति नियमावली तैयार करने में भारी कोताही की।
यह रवैया बेरोजगारों पर भारी पड़ रहा है। यह भी सत्य है कि अधिकांश नियुक्तियां विवादों में फंसती रही हैं। नियुक्ति नियमावलियां ठोक-बजाकर नहीं बनतीं, जिससे प्रतियोगिता परीक्षाओं की प्रक्रिया शुरू होने के बाद गंभीर त्रुटि सामने आने लगती है। इस दोष के कारण कभी परीक्षाएं रद होती हैं तो कभी परिणाम रद करना पड़ता है।
राज्य कर्मचारी चयन आयोग द्वारा आयोजित संयुक्त स्नातक स्तरीय परीक्षा में भी कुछ ऐसा ही हुआ है। नियमावली में गड़बड़ी के कारण प्रारंभिक परीक्षा के परिणाम में खामियां सामने आईं। इसके बाद परीक्षा को स्थगित करना पड़ा। कर्मचारी चयन आयोग को 18 हजार हाई स्कूल शिक्षक नियुक्ति प्रक्रिया शुरू करने के बाद स्थगित करना पड़ा है। इसमें तीन संयुक्त विषयों में नियुक्ति के लिए स्नातक में दोनों विषयों में 45 फीसद अंक की अनिवार्यता तथा निगेटिव मार्किंग का प्रावधान हटाने के बाद ही दोबारा नियुक्ति प्रक्रिया शुरू हुई। इससे पूर्व शिक्षा विभाग को इस बाबत नियमावली तैयार करने में तीन साल लगे।
पिछले साल प्राथमिक शिक्षक नियुक्ति में भी स्पष्ट नियम नहीं होने की वजह से कई जिलों में नियुक्ति जांच के घेरे में आ गई। नियमावली में पेंच के कारण 2007-08 के बाद व्याख्याताओं की नियुक्ति नहीं हो पाई है। स्वास्थ्य विभाग में 765 पारा मेडिकल कर्मियों की नियुक्ति की प्रक्रिया एक साल से रुकी पड़ी है। नियमावली में गड़बड़ी होने के कारण झारखंड कर्मचारी चयन आयोग ने संयुक्त पारा मेडिकल कर्मी प्रतियोगिता परीक्षा-2015 भी स्थगित कर दी थी। शिक्षक पात्रता परीक्षा का भी यही हश्र हुआ। राज्य सरकार को पहली शिक्षक पात्रता परीक्षा लेने में तीन साल लगे थे। नए सिरे से जब परीक्षा हुई भी तो हाईकोर्ट ने इसका परिणाम रद कर दिया। बाद में परीक्षा तो हुई लेकिन अफसरों की नाकामी के कारण जो परीक्षा अबतक कम से कम छह बार आयोजित होती, वह प्रक्रिया सिर्फ दो बार हो सकी। आवश्यकता इसकी है कि अधिकारी इस बात को गंभीरता से लें और नियुक्ति नियमावली को फूलप्रूफ बनाएं ताकि त्रुटि की गुंजाइश नहीं के बराबर रहे।
(स्थानीय संपादकीय झारखंड)
यह रवैया बेरोजगारों पर भारी पड़ रहा है। यह भी सत्य है कि अधिकांश नियुक्तियां विवादों में फंसती रही हैं। नियुक्ति नियमावलियां ठोक-बजाकर नहीं बनतीं, जिससे प्रतियोगिता परीक्षाओं की प्रक्रिया शुरू होने के बाद गंभीर त्रुटि सामने आने लगती है। इस दोष के कारण कभी परीक्षाएं रद होती हैं तो कभी परिणाम रद करना पड़ता है।
राज्य कर्मचारी चयन आयोग द्वारा आयोजित संयुक्त स्नातक स्तरीय परीक्षा में भी कुछ ऐसा ही हुआ है। नियमावली में गड़बड़ी के कारण प्रारंभिक परीक्षा के परिणाम में खामियां सामने आईं। इसके बाद परीक्षा को स्थगित करना पड़ा। कर्मचारी चयन आयोग को 18 हजार हाई स्कूल शिक्षक नियुक्ति प्रक्रिया शुरू करने के बाद स्थगित करना पड़ा है। इसमें तीन संयुक्त विषयों में नियुक्ति के लिए स्नातक में दोनों विषयों में 45 फीसद अंक की अनिवार्यता तथा निगेटिव मार्किंग का प्रावधान हटाने के बाद ही दोबारा नियुक्ति प्रक्रिया शुरू हुई। इससे पूर्व शिक्षा विभाग को इस बाबत नियमावली तैयार करने में तीन साल लगे।
पिछले साल प्राथमिक शिक्षक नियुक्ति में भी स्पष्ट नियम नहीं होने की वजह से कई जिलों में नियुक्ति जांच के घेरे में आ गई। नियमावली में पेंच के कारण 2007-08 के बाद व्याख्याताओं की नियुक्ति नहीं हो पाई है। स्वास्थ्य विभाग में 765 पारा मेडिकल कर्मियों की नियुक्ति की प्रक्रिया एक साल से रुकी पड़ी है। नियमावली में गड़बड़ी होने के कारण झारखंड कर्मचारी चयन आयोग ने संयुक्त पारा मेडिकल कर्मी प्रतियोगिता परीक्षा-2015 भी स्थगित कर दी थी। शिक्षक पात्रता परीक्षा का भी यही हश्र हुआ। राज्य सरकार को पहली शिक्षक पात्रता परीक्षा लेने में तीन साल लगे थे। नए सिरे से जब परीक्षा हुई भी तो हाईकोर्ट ने इसका परिणाम रद कर दिया। बाद में परीक्षा तो हुई लेकिन अफसरों की नाकामी के कारण जो परीक्षा अबतक कम से कम छह बार आयोजित होती, वह प्रक्रिया सिर्फ दो बार हो सकी। आवश्यकता इसकी है कि अधिकारी इस बात को गंभीरता से लें और नियुक्ति नियमावली को फूलप्रूफ बनाएं ताकि त्रुटि की गुंजाइश नहीं के बराबर रहे।
(स्थानीय संपादकीय झारखंड)
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