नीति आयोग ने देश में अध्यापक शिक्षा की गुणवत्ता पर चिंता व्यक्त की है। कुछ दिन बाद मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने अध्यापक शिक्षा पर मंथन और सुधार के लिए एक उच्च स्तरीय समिति के गठन की बात कही। लगता है कि अध्यापक शिक्षा में सुधार की एक नई कवायद आरंभ हो रही है।
पूरे देश में सत्रह हजार अध्यापक शिक्षा संस्थान हैं जो हर वर्ष उन्नीस लाख छात्रों को अध्यापक शिक्षा प्रदान करते हैं, जबकि देश में शिक्षकों की सालाना मांग मात्र तीन लाख है। उस पर भी इन उन्नीस लाख विद्यार्थियों में न्यूनतम ही अध्यापक पात्रता परीक्षा पास कर पा रहे हैं। निहितार्थ है कि हमारे यहां शिक्षकों की ‘तादाद’ अधिक है और ‘गुणवत्ता’ कम है। नीति निर्माता और शिक्षा के अध्येताओं के लिए यह स्थिति निश्चित ही चिंताजनक है।
वस्तुत: यह स्थिति अचानक पैदा नहीं हुई है। यह भारत में उच्च शिक्षा की डिग्रियां बांटने की चरम परिणति है जो अध्यापक शिक्षा के संदर्भ में अब एक घातक प्रवृत्ति के रूप में दर्ज हो रही है। गुणवत्ताहीन स्नातकों की समस्या के रूप में इसे लगभग दो दशक पहले ही दर्ज किया जा चुका था। अध्येता इसे बिना नियोजन के निजी क्षेत्र के सहयोग द्वारा उच्च शिक्षा में नामांकन वृद्धि की इच्छा का परिणाम बताते हैं। ऐसे ही स्नातक डिग्री धारकों के लिए अध्यापक शिक्षा सरकारी नौकरी का रास्ता दिखाने वाली सस्ती पेशेवर उपाधि है।
निजी क्षेत्र ने इस स्वीकृति का व्यावसायिक लाभ उठाया। हरियाणा, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश जैसे राज्य इसके गढ़ बन गए। शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के बाद प्रशिक्षित शिक्षकों की भर्ती में इस तरह अर्जित अध्यापक शिक्षा की उपाधि का तत्काल लाभ प्राप्त करने वाले दूसरों के लिए मिसाल बनते गए। इससे निजी क्षेत्र में अध्यापक शिक्षा की मांग और बढ़ गई। परिणाम यह हुआ कि राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद जैसा महत्त्वपूर्ण संस्थान अपने अन्य उद्देश्यों को भूल कर केवल इस क्षेत्र की निगरानी और नियमन में उलझ गया।
अब स्थिति यह है कि अध्यापक शिक्षा में सुधार का तात्पर्य निजी संस्थानों का नियमन बन कर रह गया है। दूसरी ओर, अध्यापक शिक्षा संस्थानों के वास्तविक आंकड़ों के द्वारा संस्थागत और केंद्रीकृत नियोजन, अध्यापक शिक्षा संस्थानों का आकलन और वैश्विक मानकों के अनुरूप पाठ्यक्रम को अद्यतन करने जैसे सुझाव सामने आ रहे हैं। ऐसे सुझाव लगभग पिछले एक दशक से दिए जा रहे हैं। उदाहरण के लिए, 2014 में अध्यापक शिक्षा के लोकप्रिय पाठ्यक्रम बीएड को एक वर्ष से दो वर्ष का कर दिया गया और उसके पाठ्यक्रम को भी समृद्ध किया गया। माना गया कि इन सुधारों के साकार होते ही सकारात्मक परिणाम सामने आने लगेंगे। लेकिन ये सुधार अध्यापक शिक्षा कार्यक्रमों की पेशेवराना तस्वीर को बदलने में कारगर साबित नहीं हुए।
भारत की अध्यापक शिक्षा ‘प्रशिक्षण के कला और विज्ञान’ से आगे नहीं निकल पाई है। चाहे विद्यालय हो या अध्यापक शिक्षा संस्थान, दोनों ही इस मान्यता पर कार्य करते हैं कि शिक्षण का अभिप्राय ‘बता देना’ मात्र है। इसके लिए अच्छी संप्रेषण कला आवश्यक है, जिन्हें कुछ कौशलों के रूप में शिक्षकों को सिखा दिया जाता है। शिक्षण शास्त्र के दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक और समाज शास्त्रीय परिप्रेक्ष्य के नाम पर जो बताया जा रहा है, वह विद्यार्थियों में रोमांच पैदा कर देने वाला सैद्धांतिक ज्ञान है, लेकिन वह विद्यालय की गतिविधियों और शिक्षण से संबंधित निर्णयों को दिशा नहीं दे पा रहा है। प्रशिक्षु खंड-खंड में शिक्षा से जुड़ी अवधारणाओं को समझते हैं, लेकिन कक्षा शिक्षण में वे कौशल केंद्रित हो जाते हैं। ये कौशल भी संसाधन संपन्न मध्यमवर्गीय विद्यालयों की शिक्षण परिस्थितियों के समतुल्य होते हैं।
इसी तरह अध्यापक शिक्षा की जो पाठ्यसामग्री उपलब्ध है, यदि वह वैश्विक मानकों के अनुरूप है, तो उसमें भारतीय परिस्थिति और संदर्भ नहीं है। इनमें से अधिकांश अंग्रेजी भाषा में हैं। जो पुस्तकें हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में उपलब्ध हैं, यदि उनमें प्रयुक्त संदर्भों पर नजर डालें तो पाएंगे कि वे अद्यतन नहीं हैं।
कुछ संस्थानों और पाठ्यक्रमों में अध्यापक शिक्षा के बेहतर प्रयोग हो रहे हैं, लेकिन ये सीमित प्रयोग भी ज्यादातर महानगरीय माहौल का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनका अपना एक पेशेवर समुदाय होता है जो एक सीमित भौगोलिक सीमा में उल्लेखनीय योगदान करता है। दिल्ली के विद्यालयों में मार्गदर्शक शिक्षक ही ऐसे ही समुदाय का प्रतिनिधित्व करता है। इन श्रेष्ठता के द्वीपों के बाहर ‘अध्यापन तकनीक’ पर ही कार्य हो रहा है। इनके साथ ही अध्यापक शिक्षा, भारतीय उच्च शिक्षा के स्थायी संकटों जैसे- संकाय सदस्यों का अभाव, मात्रात्मक प्रसार, बाजारवादी प्रवृत्ति का हावी होना और परीक्षा केंद्रित पढ़ाई से भी जूझ रही है। हमने उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के लिए दो युक्तियों को अपनाया। पहला, कुछ मॉडल संस्थाएं स्थापित हों और वे अपने आसपास के अन्य संस्थानों को सहयोग उपलब्ध कराएं और उनके लिए श्रेष्ठता का प्रतिमान बनें।
दूसरे, उच्च शिक्षा के भारतीय शोध, अपने-अपने विषयों को संदर्भ अनुकूल और अद्यतन करने का प्रयास करें। अध्यापक शिक्षा के मॉडल संस्थान अपने में सफल हैं, लेकिन वे मार्गदर्शक और गुणवत्ता सुधार में सतत सहयोग प्रदान करने की भूमिका नहीं निभा पा रहे हैं। इसी तरह अध्यापक शिक्षा के अधिकांश शोध कार्य भी केवल शोध की उपाधि बांटने में भूमिका निभा रहे हैं। वे स्कूली शिक्षा, समाज-शिक्षा के संबंध, शिक्षण शास्त्र के प्रयोगों के आधार पर हमारे व्यावहारिक कार्यों को प्रभावित नहीं कर पा रहे हैं। इन पक्षों को संज्ञान में लिए बिना राज्य का हस्तक्षेप संरचनात्मक सुधारों, नवाचार और प्रयोगों का पुलिंदा बन कर रह जाता है।
वर्तमान अध्यापक शिक्षा के लिए आने वाले विद्यार्थियों की अधिकांश आबादी ‘ज्ञान अंतराल’ से जूझ रही है। स्कूल की पाठ्यचर्या में जिस तरह का विषय ज्ञान होता है और जिस ज्ञान से ये प्रशिक्षु युक्त होते हैं, उनमें कम से कम दस वर्ष का अंतर होता है। असततता का दूसरा रूप अध्यापक शिक्षा के बाद नियमित शिक्षक की भूमिका में कार्य करने के दौरान प्रकट होता है। इसे अध्यापन कर्म के ‘आदर्श’ और नौकरी की ‘मांग’ के बीच के फर्क द्वारा समझा जा सकता है। अध्यापन कर्म आलोचनात्मक और असहमति को महत्त्व देता है, नौकरी समायोजन कर काम निकालने की कला को सीखाती है। हम ‘अध्यापक’ की भूमिका में कक्षा को प्रयोगों और नवाचार का मंच बनाते हैं, जबकि ‘नौकरी’ में अपने कार्य और प्रदर्शन के दस्तावेजी प्रमाण को मुक्म्मल करने को तरजीह देते हैं।
भारत जैसे विकासशील देशों में ‘वैश्विक मानकों के अनुरूप बनें’ का मुहावरा खूब चलता है। इसका आशय अमेरिका, ब्रिटेन और इन जैसे अन्य देशों की प्रचलित व्यवस्था का अनुकरण से है। अध्यापक शिक्षा में भी हम यही चाहते हैं। यदि इन देशों की स्वाभाविक श्रेष्ठता को प्रश्नांकित करते हुए वहां के शोध कार्यों पर दृष्टि डालें तो पाएगें कि इन देशों में भी अध्यापक शिक्षा के हालात बहुत अच्छे नहीं हैं। वे भी बाजार और मानकीकृत कसौटियों की के चलन से जूझ रहे हैं। वहां भी अध्यापक अपनी पेशेवर अस्मिता के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उनमें भी सेवा, सृजन बनाम नौकरी व नियोक्ता की अपेक्षाओं को लेकर दबाव और तनाव हैं। वे भी इक्कीसवीं सदी की स्कूली शिक्षा के सापेक्ष अध्यापक शिक्षा को व्याख्यायित करने की समस्या से जूझ रहे हैं। वे भी विचार कर रहे हैं कि कैसे तकनीकी, मूल्य, साक्षरता, बौद्धिक उद्दीपकों, प्रकृति के साथ सहजीवन, अहिंसा और न्याय के मूल्यों को अध्यापक शिक्षा में स्थापित किया जाए।
पूरे देश में सत्रह हजार अध्यापक शिक्षा संस्थान हैं जो हर वर्ष उन्नीस लाख छात्रों को अध्यापक शिक्षा प्रदान करते हैं, जबकि देश में शिक्षकों की सालाना मांग मात्र तीन लाख है। उस पर भी इन उन्नीस लाख विद्यार्थियों में न्यूनतम ही अध्यापक पात्रता परीक्षा पास कर पा रहे हैं। निहितार्थ है कि हमारे यहां शिक्षकों की ‘तादाद’ अधिक है और ‘गुणवत्ता’ कम है। नीति निर्माता और शिक्षा के अध्येताओं के लिए यह स्थिति निश्चित ही चिंताजनक है।
निजी क्षेत्र ने इस स्वीकृति का व्यावसायिक लाभ उठाया। हरियाणा, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश जैसे राज्य इसके गढ़ बन गए। शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के बाद प्रशिक्षित शिक्षकों की भर्ती में इस तरह अर्जित अध्यापक शिक्षा की उपाधि का तत्काल लाभ प्राप्त करने वाले दूसरों के लिए मिसाल बनते गए। इससे निजी क्षेत्र में अध्यापक शिक्षा की मांग और बढ़ गई। परिणाम यह हुआ कि राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद जैसा महत्त्वपूर्ण संस्थान अपने अन्य उद्देश्यों को भूल कर केवल इस क्षेत्र की निगरानी और नियमन में उलझ गया।
अब स्थिति यह है कि अध्यापक शिक्षा में सुधार का तात्पर्य निजी संस्थानों का नियमन बन कर रह गया है। दूसरी ओर, अध्यापक शिक्षा संस्थानों के वास्तविक आंकड़ों के द्वारा संस्थागत और केंद्रीकृत नियोजन, अध्यापक शिक्षा संस्थानों का आकलन और वैश्विक मानकों के अनुरूप पाठ्यक्रम को अद्यतन करने जैसे सुझाव सामने आ रहे हैं। ऐसे सुझाव लगभग पिछले एक दशक से दिए जा रहे हैं। उदाहरण के लिए, 2014 में अध्यापक शिक्षा के लोकप्रिय पाठ्यक्रम बीएड को एक वर्ष से दो वर्ष का कर दिया गया और उसके पाठ्यक्रम को भी समृद्ध किया गया। माना गया कि इन सुधारों के साकार होते ही सकारात्मक परिणाम सामने आने लगेंगे। लेकिन ये सुधार अध्यापक शिक्षा कार्यक्रमों की पेशेवराना तस्वीर को बदलने में कारगर साबित नहीं हुए।
भारत की अध्यापक शिक्षा ‘प्रशिक्षण के कला और विज्ञान’ से आगे नहीं निकल पाई है। चाहे विद्यालय हो या अध्यापक शिक्षा संस्थान, दोनों ही इस मान्यता पर कार्य करते हैं कि शिक्षण का अभिप्राय ‘बता देना’ मात्र है। इसके लिए अच्छी संप्रेषण कला आवश्यक है, जिन्हें कुछ कौशलों के रूप में शिक्षकों को सिखा दिया जाता है। शिक्षण शास्त्र के दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक और समाज शास्त्रीय परिप्रेक्ष्य के नाम पर जो बताया जा रहा है, वह विद्यार्थियों में रोमांच पैदा कर देने वाला सैद्धांतिक ज्ञान है, लेकिन वह विद्यालय की गतिविधियों और शिक्षण से संबंधित निर्णयों को दिशा नहीं दे पा रहा है। प्रशिक्षु खंड-खंड में शिक्षा से जुड़ी अवधारणाओं को समझते हैं, लेकिन कक्षा शिक्षण में वे कौशल केंद्रित हो जाते हैं। ये कौशल भी संसाधन संपन्न मध्यमवर्गीय विद्यालयों की शिक्षण परिस्थितियों के समतुल्य होते हैं।
इसी तरह अध्यापक शिक्षा की जो पाठ्यसामग्री उपलब्ध है, यदि वह वैश्विक मानकों के अनुरूप है, तो उसमें भारतीय परिस्थिति और संदर्भ नहीं है। इनमें से अधिकांश अंग्रेजी भाषा में हैं। जो पुस्तकें हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में उपलब्ध हैं, यदि उनमें प्रयुक्त संदर्भों पर नजर डालें तो पाएंगे कि वे अद्यतन नहीं हैं।
कुछ संस्थानों और पाठ्यक्रमों में अध्यापक शिक्षा के बेहतर प्रयोग हो रहे हैं, लेकिन ये सीमित प्रयोग भी ज्यादातर महानगरीय माहौल का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनका अपना एक पेशेवर समुदाय होता है जो एक सीमित भौगोलिक सीमा में उल्लेखनीय योगदान करता है। दिल्ली के विद्यालयों में मार्गदर्शक शिक्षक ही ऐसे ही समुदाय का प्रतिनिधित्व करता है। इन श्रेष्ठता के द्वीपों के बाहर ‘अध्यापन तकनीक’ पर ही कार्य हो रहा है। इनके साथ ही अध्यापक शिक्षा, भारतीय उच्च शिक्षा के स्थायी संकटों जैसे- संकाय सदस्यों का अभाव, मात्रात्मक प्रसार, बाजारवादी प्रवृत्ति का हावी होना और परीक्षा केंद्रित पढ़ाई से भी जूझ रही है। हमने उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के लिए दो युक्तियों को अपनाया। पहला, कुछ मॉडल संस्थाएं स्थापित हों और वे अपने आसपास के अन्य संस्थानों को सहयोग उपलब्ध कराएं और उनके लिए श्रेष्ठता का प्रतिमान बनें।
दूसरे, उच्च शिक्षा के भारतीय शोध, अपने-अपने विषयों को संदर्भ अनुकूल और अद्यतन करने का प्रयास करें। अध्यापक शिक्षा के मॉडल संस्थान अपने में सफल हैं, लेकिन वे मार्गदर्शक और गुणवत्ता सुधार में सतत सहयोग प्रदान करने की भूमिका नहीं निभा पा रहे हैं। इसी तरह अध्यापक शिक्षा के अधिकांश शोध कार्य भी केवल शोध की उपाधि बांटने में भूमिका निभा रहे हैं। वे स्कूली शिक्षा, समाज-शिक्षा के संबंध, शिक्षण शास्त्र के प्रयोगों के आधार पर हमारे व्यावहारिक कार्यों को प्रभावित नहीं कर पा रहे हैं। इन पक्षों को संज्ञान में लिए बिना राज्य का हस्तक्षेप संरचनात्मक सुधारों, नवाचार और प्रयोगों का पुलिंदा बन कर रह जाता है।
वर्तमान अध्यापक शिक्षा के लिए आने वाले विद्यार्थियों की अधिकांश आबादी ‘ज्ञान अंतराल’ से जूझ रही है। स्कूल की पाठ्यचर्या में जिस तरह का विषय ज्ञान होता है और जिस ज्ञान से ये प्रशिक्षु युक्त होते हैं, उनमें कम से कम दस वर्ष का अंतर होता है। असततता का दूसरा रूप अध्यापक शिक्षा के बाद नियमित शिक्षक की भूमिका में कार्य करने के दौरान प्रकट होता है। इसे अध्यापन कर्म के ‘आदर्श’ और नौकरी की ‘मांग’ के बीच के फर्क द्वारा समझा जा सकता है। अध्यापन कर्म आलोचनात्मक और असहमति को महत्त्व देता है, नौकरी समायोजन कर काम निकालने की कला को सीखाती है। हम ‘अध्यापक’ की भूमिका में कक्षा को प्रयोगों और नवाचार का मंच बनाते हैं, जबकि ‘नौकरी’ में अपने कार्य और प्रदर्शन के दस्तावेजी प्रमाण को मुक्म्मल करने को तरजीह देते हैं।
भारत जैसे विकासशील देशों में ‘वैश्विक मानकों के अनुरूप बनें’ का मुहावरा खूब चलता है। इसका आशय अमेरिका, ब्रिटेन और इन जैसे अन्य देशों की प्रचलित व्यवस्था का अनुकरण से है। अध्यापक शिक्षा में भी हम यही चाहते हैं। यदि इन देशों की स्वाभाविक श्रेष्ठता को प्रश्नांकित करते हुए वहां के शोध कार्यों पर दृष्टि डालें तो पाएगें कि इन देशों में भी अध्यापक शिक्षा के हालात बहुत अच्छे नहीं हैं। वे भी बाजार और मानकीकृत कसौटियों की के चलन से जूझ रहे हैं। वहां भी अध्यापक अपनी पेशेवर अस्मिता के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उनमें भी सेवा, सृजन बनाम नौकरी व नियोक्ता की अपेक्षाओं को लेकर दबाव और तनाव हैं। वे भी इक्कीसवीं सदी की स्कूली शिक्षा के सापेक्ष अध्यापक शिक्षा को व्याख्यायित करने की समस्या से जूझ रहे हैं। वे भी विचार कर रहे हैं कि कैसे तकनीकी, मूल्य, साक्षरता, बौद्धिक उद्दीपकों, प्रकृति के साथ सहजीवन, अहिंसा और न्याय के मूल्यों को अध्यापक शिक्षा में स्थापित किया जाए।
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